चाणक्य – सम्पूर्ण कहानी भाग – 8
सेल्यूकस से भेँट
चलते-चलते चन्द्रगुप्त और चाणक्य थककर चूर हो गए। प्यास से उनका कंठ भी सूखने लगा। उन्होंने चाणक्य से कहा___”मुझे क्षमा करे गुरुदेव ! मैं अब चलने में असमर्थ हूं। प्यास से मेरा गला भी सुखा जा रहा है।”
चाणक्य ने चंद्रगुप्त से कहा___”कोई बात नहीं। तुम उस वृक्ष के नीचे विश्राम करो। मैं तुम्हारे लिए जल लेकर आता हूं।” इसके बाद चंद्रगुप्त को वहीं छोड़कर चाणक्य जल लेने चले गए। कुछ ही समय पश्चात जब वे जल लेकर लौटे तो उन्होंने चन्द्रगुप्त पर एक शेर को झपटते हुए देखा। न चाहते हुए भी उनके काठ से चीख निकल गई। अपने प्रिय शिष्य को ग्रास बनते देख वे घबरा गए। तभी किसी अज्ञात दिशा से एक सरसराता हुआ तीर आया तथा उससे शेर स्वयं को बचा न पाया। वह किसी कटे हुए वृक्ष की भांति दूर जा गिरा। तीर चलने वाला यवन सेनापति सेल्यूकस था।
चाणक्य ने उसका आभार व्यक्त किया, फिर यवन सेनापति का परिचय प्राप्त किया।
“आप लोग कौन है ?” सेल्यूकस ने पूछा।
“इस मगध का निर्वासित राजकुमार है।” चाणक्य ने उत्तर दिया___”यह थकान और प्यास से अपने होश गंवा बैठा है। मैं इसका गुरु चाणक्य हूं।”
“यही पास ही मेरा शिविर है।” सेल्यूकस बोला___”आप दोनों वहीं चलकर थोड़ा विश्राम कर लीजिये।”
“हम अवश्य आएंगे सेनापतिजी।” चाणक्य ने कहा___”परन्तु इस समय नहीं। आपने मेरे शिष्य के प्राण बचाकर हम पर बहुत बड़ा उपकार किया है। हम भारतीय कभी किसी का उपकार नहीं भूलते। हम शीघ्र ही आपके पास आएंगे।”
सेल्यूकस चला गया। चाणक्य ने जल के छींटे देकर चंद्रगुप्त को होश में लाने का प्रयत्न किया। इसके बाद उन्होंने जब चंद्रगुप्त को सारी बात बताई तो चंद्रगुप्त बोले___”आपको उसका अनुरोध नहीं ठुकराना चाहिए था। हम थोड़ी देर के लिए उसके शिविर में चल पड़ते।”
“नहीं चंद्रगुप्त।” चाणक्य बोले___”हमे उनके पास नहीं जाना चाहिए। प्राण बचाने के बदले में वे हमसे कुछ भी मांग सकते है।”
“कुछ भी क्या गुरुदेव।”
“भारतवर्ष का नाश करने में हमारी सहायता।”
“नहीं।”
“तब उन्हें मना करना बहुत कठिन होता, इसलिए मैने उसे टाल दिया।”
“आपने बिलकुल ठीक निर्णय किया गुरदेव।” चंद्रगुप्त अपने गुरु को प्रशंसा-भरी दृष्टी से देखते हुए बोले___”अब हम कहां जाएंगे।”
“पास ही दाण्डयायन ऋषि का आश्रम है। पहले चलकर उनसे चलकर आशीर्वाद ले लेते है।” और फिर दोनों दाण्डयायन के आश्रम में पहुंच गए तथा उनके दर्शन के उपरांत काफी देर वार्तालाप भी किया।
मगध की सीमा से दूर
चंद्रगुप्त की सहायता से चाणक्य ने मगध की सीमा से दूर एक विशाल आश्रम निर्माण कराया। गांधार की राजकुमारी अलका ने भी इस कार्य में अपना पूरा योगदान दिया। तभी उन्हें सुचना मिली कि सिकंदर व महाराज पुरू के बीच युद्ध शुरू हो गया है।
“आचार्य !” अलका ने पूछा___”अब आगे का क्या कार्यक्रम है ?”
“मैने मगध में अपना जाल फैला दिया है।” चाणक्य बोले___”वहां मुझे एक घर का भेदी मिल गया है। अब वहीं हमारी सहायता करेगा।”
“घर का भेदी कौन ?”
“नंदराज की पुत्री कल्याणी। अपने पिता के प्रति उसके मन में गहरा रोष है। मौर्यो की हत्या के बाद वह अपने पिता से घृणा करने लगी है। मैं आज ही उससे मिलने जाऊंगा। तुम देखना, कल्याणी ही मगध के बागी सैनिको की बहुत बड़ी सेना तैयार कर लेगी और चंद्रगुप्त की सहायता के लिए यहां पहुंच जाएगी।”
“यह तो बहुत अच्छा होगा।”
“सिंहरण या उसका कोई दूत बस यहां आता ही होगा। मुझे अपने शिष्यों पर पूरा विश्वास है। अपने पिता को समझा-बुझाकर उसने मालव सेना की कमान अपने हाथों में ले ली होगी। वह भी चन्द्रगुप्त की सहायता के लिए पूरी तरह से तैयार हो जाएगा। तुम तो जानती ही हो। चन्द्रगुप्त और सिंहरण घनिष्ठ मित्र है।”
“मैं जानती हूं आचार्य।”
फिर उसी दिन चाणक्य मगध की राजधानी पाटलिपुत्र के लिए विदा हो गए।
कल्याणी से भेंट
पाटलिपुत्र पहुंचकर चाणक्य ने सबसे पहले कुछ ऐसे राजसैनिको की खोज की जो सेनापति मौर्य के प्रशंसक थे।
जब चाणक्य ने उन्हें बताया कि अंतिम मौर्य चन्द्रगुप्त जीवित है तो वे उससे मिलने के लिए लालायित हो उठे।
उन्ही सैनिको के माध्यम से चाणक्य ने कल्याणी को संदेश भेजा कि वे गुप्त रूप से आकर उनसे भेंट करे।
फिर एक गुप्त स्थान पर चाणक्य व कल्याणी मिले। चाणक्य ने जब उसे चंद्रगुप्त के विषय में बताया तो वह भी प्रसन्नता से झूम उठी तथा उससे मिलने के लिए लालायित दिखाई देने लगी।
“मेरे पिता ने चंद्रगुप्त के साथ बहुत बुरा किया है।” वह बोली___”यही कारण है कि मुझे अपने पिता से घृणा है।”
“क्या तुम चन्द्रगुप्त का साथ दोगी।”
“अवश्य दूंगी। आप आदेश दीजिये मुझे क्या करना होगा ?”
“हमे सैन्य सहायता चाहिए।” चाणक्य बोले___”तुम्हे विद्रोही सैनिको को एकत्रित करके अपनी सेना तैयार करनी होगी तथा उसे चंद्रगुप्त की सेवा में प्रस्तुत करना होगा।”
“मैं यह कार्य सरलता से कर लूंगी, परन्तु चन्द्रगुप्त कहां है ?”
“तुम जिस दिन सेना तैयार कर लोगी, उसी दिन चन्द्रगुप्त से तुम्हारी भेंट होगी। इससे पहले नहीं। बोलो, स्वीकार है ?”
“स्वीकार है आचार्य, परन्तु आप करना क्या चाहते है ?”
“मैं इस देश के भाग्य को बदल देना चाहता हूं। मैं चाहता हूं कि पुरे देश पर एक चक्रवर्ती सम्राट हो ताकि कोई विदेशी हमारी मातृभूमि की ओर आंख उठाकर भी न देख सके।”
“आपकी सोच अति उत्तम है आचार्यजी, इस पुनीत कार्य में मुझसे जो भी योगदान होगा, मैं अवश्य करूंगी।”
फिर चाणक्य अपने आश्रम लौट आए।
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